Thursday, September 03, 2009

लखनऊ की क्या कहें अब

लखनऊ के बारे में क्या कहें अब
जितना कहें उतना ही कम पड़ेगा
अगरचे जो रिक्शेवाला आपसे कहे कि कहाँ जाइएगा
बस समझ लीजिये कि आप लखनऊ में ही हैं

जहाँ अमीनाबाद के चौराहों पर होली के दिन जो बड़े बड़े पंडाल लगते हैं,
पूरा बाज़ार आतिशी जगमगाहट से सराबोर दीखता है
ठेलों पर रंगोगुलाल ओ पिचकारियों की बाज़ार लगी हो
और कमिटी के सदर मेम्बरान जो दीनी मुसलमान हों
तो भी आप समझ लीजियेगा कि ये लखनऊ ही है

जहाँ रेलवे स्टेशन के पूरब में गर जाएँ
और एक खूबसूरत मजार पटरियों के बीच पायें
जहाँ मुसलमान कम और हिन्दू ज्यादा सजदे करते देखे जाएँ
तो जानिए कि वो खम्मन पीर का दरे पाक है
जहाँ हर बीफै बड़ा ही ज़ोरदार लगता है मेला
और फरियादी फैज़ाबादो इलाहबाद से भी आते हैं

जहाँ कन्कैयाबाजों के बदे लगते हैं जमघट के अगले रोज़
गोमती के किनारे और गली मोहल्लों में भी
जब सआदत मियां पिचासी पार करके
लौंडों को पुरजोश गुर बांटें हैं पेंचों के
“अबे ऊपर से ले के नीचे को खींच”
वो काटा नीली पट्टेदार ने काली लट्ठेदार को
मानदार एक लहरा रही है वो तिरंगी सी
ये जगह तो लगे है बहुत जानी पहचानी सी
यों जैसे कि लहू ओ धड़कन में पैवस्त हो

वो जगह जिसे गंज है जाना जाता
क्या कोई ऐसा है जो यहाँ नहीं आता
रिक्शे वाले से ले के बड़े बाबू ओ हज़रात तक
सब का रहा है इस दर से कुछ तो वास्ता
वो रस्ते गंज के माना नहीं हैं लम्बे मगर
वो चार कदम ही दे देते हैं उम्र भर की तफरीह
माना कि मेफेयर में अब खुल गयी है किताबगाह
जरा सहारे की तरफ भी कीजिये तो इक निगाह
जहाँ पीवीआर से लेके कोहलीस से टुंडे तक हुए हैं काबिज़
और ऐसे कि मानों पूरा लखनऊ कुछ यहीं पर है सिमट सा आया

पर वो चौक की कूचा-ए-तंग जिनमे रौशनी भी आई शरमाती सी
उनको तो आपको इस चौक में ही ढूंढ़ना होगा
हो सकता है किसी कोने में वो पड़ी पायें
अपनी गैर जरूरतगी पे बेकल और बेपरवाह भी
उन गलियों का रास्ता अब कोई नहीं पूछता
क्यों की अब लखनऊ में सड़कें चौडी पाई जाती हैं ....

ये तमाम नहीं हुआ अभी...